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देवता: इन्द्रः ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣡म꣢स्य म꣣न्य꣢वे꣣ वि꣢शो꣣ वि꣡श्वा꣢ नमन्त कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡ये꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः ॥१६५१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः । समुद्रायेव सिन्धवः ॥१६५१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स꣢म् । अ꣣स्य । मन्य꣡वे꣢ । वि꣡शः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । न꣣मन्त । कृष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡य꣢ । स꣣म् । उद्रा꣡य꣢ । इ꣣व । सि꣡न्ध꣢꣯वः ॥१६५१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1651 | (कौथोम) 8 » 1 » 13 » 1 | (रानायाणीय) 17 » 4 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १३७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ राजा के दृष्टान्त से परमात्मा का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

जैसे (अस्य) इस इन्द्र राजा के (मन्यवे) क्रोध के सम्मुख (विश्वाः) सब (कृष्टयः) विनाशक (विशः) शत्रु-सेनाएँ (सं नमन्त) झुक जाती हैं, वैसे ही (अस्य) इस इन्द्र परमात्मा के (मन्यवे) तेज के सम्मुख (विश्वाः) सब (कृष्टयः) योगाभ्यासरूप कृषि करनेवाली (विशः) प्रजाएँ (सं नमन्त) नम्र हो जाती हैं, (समुद्राय इव) जैसे समुद्र को प्राप्त करने के लिए (सिन्धवः) नदियाँ (सं नमन्त) नम्र अर्थात् नीचे की ओर बहनेवाली हो जाती हैं ॥१॥ यहाँ उपमा और श्लेष अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर का प्रताप, प्रभाव और महत्त्व सबसे महान् है, जिसके संमुख सभी नतमस्तक होते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १३७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र नृपतिदृष्टान्तेन परमात्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

यथा (अस्य) इन्द्रस्य नृपतेः (मन्यवे) क्रोधाय (विश्वाः) सर्वाः (कृष्टयः) कर्षयित्र्यः (विशः) शत्रुसेनाः (सं नमन्त) संनमन्ति, तथैव (अस्य) इन्द्रस्य परमात्मनः (मन्यवे) तेजसे (विश्वाः) सर्वाः (कृष्टयः) योगाभ्यासरूपं कृषिकर्म कुर्वाणाः (विशः) प्रजाः (सं नमन्त) नम्रा भवन्ति, (समुद्राय इव) समुद्रं प्राप्तुं यथा (सिन्धवः) नद्यः (संनमन्त) नम्राः निम्नाभिमुखाः जायन्ते ॥१॥ अत्रोपमा श्लेषश्चालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

वरिष्ठः किल जगदीशस्य प्रतापः प्रभावो महिमा च यस्य पुरतः सर्वेऽपि नतमस्तका जायन्ते ॥१॥